Sunday, October 5, 2014

मनुवादी व्यवस्था का विकल्प?

भाइयो मेरी जानकारी में एक मीणा भाई ऐसे हैं जो बामण और बनियों तक की शादियाँ करवाते थे। मगर 2002 के बाद से उनसे मेरा सम्पर्क नहीं है। 

ये बात सही है कि हमें लोगों को मनुवाद से मुक्त करवाना है तो विकल्प देना भी हमारी ही जिम्मेदारी है। 

मगर मैं माफ़ी चाहते हुए कहना चाहता हूँ कि जिस विकल्प की वास्तव में हमें जरुरत है, वो विकल्प ये नहीं है कि बामणों की जगह किसी अन्य वर्ग या जाति के लोगों को बुला कर बामणों की ही रीति से विवाह संपन्न करवाए जावें। ये शुतुरमुर्गी सोच है। 

मुद्दा तो मनुवादी सोच और रीतियों को बदलने का है। यदि किसी अन्य के मार्फ़त भी हम ब्राह्मणों द्वारा थोपी गयी हिन्दूवादी और अवैज्ञानिक रीति को ही अपनाते रहे तो वैचारिक क्रांति की तो शुरू में ही हत्या हो गयी। 

फिर भी शुरुआत के लिए या ब्राह्मणों के फिजीकल शिकंजे से दिखावटी मुक्ति के लिए कुछ समय के लिए ये अस्थायी उपचार अपनाया जा सकता है।

असल में तो हमारा लक्ष्य मनुवाद की मानसिक गुलामी से मुक्ति पाना होना चाहिए। जिसके लिए हमें स्थायी और व्यावहारिक विकल्प तलाशने होंगे। हम सभी बुद्धिजीवी हैं। चिंतन करना होगा। हर समस्या का समाधान और हर सुविधा/जीवनशैली का विकल्प होता है। एक दूरदर्शी विचार को आगे बढ़ाने में चिन्तन के लिए आप सभी का आभार।-05.10.2014

Wednesday, October 1, 2014

जातिवादी-असमानता के खिलाफ संघर्ष

भारत में जितने भी अत्याचार शोषण हुए या हो रहे हैं
सब जाति के नाम पर ही होते हैं।  
जिसको लगता है कि अब देश में जातिवाद नहीं है। 
वो अपने घर में काम करने वाली बाई का नाम पूछ ले
मैं दावे के साथ कहता हूँ की वो सवर्ण नहीं होगी।
सरकारी अस्पताल के जनरल वार्ड में
भर्ती मरीजों का नाम पूछ ले
वो भी सवर्ण नहीं होंगे।
रेलवे के एसी डिब्बों में सफ़र करने वाले भी हमारे लोग नहीं हैं
वहीँ दूसरी ओर रेवड़ी वाले ,पटरी पर सामान बचने वाले, रिक्शा खींचने वाले, ठेला चलाने वाले,
मजदूरी करने वाले, पन्नी बीनने वाले, कचरा उठाने वाले, स्टेशनों में तुम्हारे लक्ज़री बैग ढोने वाले, तुम्हारे लिए महल बनाने वाले, तुम्हारे जूतों पर पालिस करने वाले ये कर्मशील लोग हमारे अपने लोग हैं। 
कभी तुमने सोचा है-
कि इनकी दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है ??
तुम क्यों सोचोगे...??
मैं बताता हूँ, हमारी इस दशा के लिए
जिम्मेदार हैं-तुम्हारे बनाये नियम, तुम्हारे लिखे
ग्रन्थ, तुम्हारी संस्कृति, ये रीतियाँ, ये रिवाज़, ये आडम्बर और तुम्हारे बनाये भगवान भी जिसने
कभी बराबरी का दर्जा नहीं दिया।
फिर भी मुझे गर्व है कि मेरे समाज
का कोई आदमी हराम का नहीं खाता मेहनत करके
पसीना बहा कर खाता है।
परलोक का भय दिखाकर, दान लेने वाले छल करने वाले
मंदिरों, नदियों के घाटों में बैठ कर भीख मांगने वाले को सम्मान
और
मेहनतकश को अपमान ये कहाँ का न्याय है???
जवाब दो ...............जवाब दो .................??
हमें अपनी दुर्दशा के कारणों का नास करना होगा
तो हम फिर से सम्मान की जिन्दगी जी सकेंगे।
असमानता के खिलाफ संघर्ष
जारी रहेगा ।
-संकलित, एक शूद्र की आवाज।